Wednesday, June 24, 2020

लाल धारियों वाले सफेद मोजे 


परत-दर-परत खुलते हुए जिंदगी अपने नृशंस रूप में सामने आती जा रही है। लगता है कि अब बस... और आगे नहीं जाना। अब यहीं से रिवर्स गेयर लग जाए। पीछे लौटने के क्रम में ना जाने कितने ही लोग, कितने ही चेहरे याद आते जा रहे हैं। लौटने के इस क्रम में जीवन में शामिल दोस्तों की फेहरिस्त में सबसे अंतिम हाथ जो नजर आता है, वह शशांक का है। स्मृति में दर्ज जिंदगी का सबसे पहला दोस्त। 

फेसबुक पर अचानक से नोटिफिकेशन आता है कि आज वत्सल का बर्थडे है। एक दिन पहले ही शशांक का भी तो बर्थडे था। यह भी बढ़िया संयोग है। बचपन से ही जिंदगी में शामिल दोस्तों का बर्थडे लगातार दिनों में पड़ता है। मन अचानक से जैसे बचपन में पहुंच जाता है। मेरी आंखें लैपटॉप से हटकर सामने खिड़की पर टिक जाती हैं। जाने कितने नाम, कितने ही चेहरे, कितनी यादें...उफ! सब जैसे अचानक से ठहर जाता है। ऊपर की तरफ तीन लाल धारियों वाले सफेद मोजे। नीली हाफ पैंट, जिसमें से दो पट्टियां निकलकर ऊपर सफेद बुशर्ट पर टंगी हुई हैं। अंग्रेजी की कॉपी में चार लाइनें। कॉपियों के पन्नों पर ऊपर किनारे दर्ज नंबर। बस्ते में कॉपी-किताबों के बीच में रखी टिफिन। 

अचानक से कितनी ही यादें जेहन में कौंध जाती हैं। स्कूल के गेट पर खट्टा-मीठा खाने से लेकर हाथों पर पड़ी मास्टर की छड़ी...हां एक बार मैं और मिश्रा पीटे गए थे, तीसरी क्लास में थे तब। मिश्रा मतलब शशांक, जो हम सबके लिए मिश्रा ही रहा। अब शैंकी हो गया है। हां, तो हुआ कुछ यूं था कि हम दोनों ने अपने ही एक खास दोस्त की डायरी में उल्टा-सीधा कुछ लिख डाला था। और उसने जाकर बता दिया था क्लास मॉनिटर से। बस फिर क्या.. बात गई ऊपर तक और हुई हम दोनों की पेशी। अब भी कभी उस बात का जिक्र कर हंस पड़ते हैं। 

वत्सल, मेरी शादी में सबसे अधिक पैसा लुटाने वाला दोस्त। शुरू से ही सभी के बीच कौतूहल का एक विषय था वत्सल। जन्म से ही शारीरिक प्रॉब्लम की वजह से चेहरे की कुछ अलग बनावट उसे बाकियों से अलग पहचान दिलाती थी। सुनने के लिए मशीन लगाया करता था, अभी भी लगाता है। चारू, हम लोगों में सबसे पहले साइकल से आने लगा था। शुभम उर्फ सिंघा, बाद में बैडमिंटन चैंपियन हो गया था। कुणाल, कबड्डी में उस्ताद था। केशव साथ में बैठता था। शानू, हॉस्टल में रहता था। अनूप, पढ़ने में तेज था। अक्षय का घर मेरे घर के रास्ते में पड़ता था, तो रिक्शे में साथ आता था। करुणेश रेस अच्छा लगाता था। दो सगे भाई भी थे अरुण-तरुण, लड़ाई में आगे रहते थे। अंकुर अक्सर मॉनिटर बनता था। रोहित नई-नई चीजें लाता था। एक मितेश गुंजन भी था, जो तीन-चार क्लास आगे के मैथ के सवाल हल कर लेता था। एक दिन स्कूल नहीं आया, पता चला कि खेलते हुए अचानक छत से गिरा और उसी समय 'है' से 'था' हो गया। स्कूल की पढ़ाई में कई ऐसे मितेश गुंजन हुए जो 'थे' हो गए, जिनके लिए प्रार्थना सभाओं में आंख बंदकर अपने होठ से ओम् शांति बुदबुदाया करता था। 

कुछ लड़कियां भी थीं। लड़कियां नहीं बल्कि बहनें कहना ही शिशु मंदिर से पढ़े हम लड़कों के लिए न्याय होगा। लड़कियां, जिनका हाथ लड़के केवल एक ही दिन आजादी के साथ छू सकते थे- राखी बंधवाने के लिए। उस दिन जब हाथों में राखी लिए स्कूल की लड़कियां, बहन बनकर सामने मौजूद होती थीं। लड़के नजरें झुकाए अपनी डेस्क पर जड़वत बैठे रहते थे। अब आचार्य की सनसनाती नजरें ढूंढ-ढूंढकर लड़कों को उठाती थीं, जो अगले ही पल बहनों के सामने हाथ ताने नजर आते थे। सब बचपन था। लड़कियां खास दोस्त नहीं रहीं कभी, बस साथ में पढ़ी हुई ही रहीं। कुछ आधा दर्जन नाम हैं, जो अभी भी गाहे-बगाहे किसी पुराने यार से जिक्र में निकल आते हैं। 'अबे वो याद है तुम्हें' से शुरू होकर 'नहीं बे, ऐसा नहीं कुछ नहीं था' तक ठहाकों का दौर चल पड़ता है।       

जाने कितने नाम, कितनी यादें... क्या-क्या ही तो लिख पाऊंगा। प्राइमरी तक की स्कूल के कुछ गिनती भर के ही नाम अब भी साथ में जुड़े हैं। पक्कीबाग...यहीं, शहर के इसी हिस्से में था स्कूल मेरा। कभी रास्ते से गुजरते वक्त नजर पड़ जाती है, तो अचानक से हारमोनियम की धुन के साथ प्रार्थना सभाओं की गूंज, शिशु वाटिका की मैडम, कभी हॉस्टल में चोरी-छिपे जाकर कमरे देख आना, सामने ग्राउंड में अपने रिक्शे के इंतजार में पैड को बल्ला और रुमाल को बॉल बना क्रिकेट खेलना जैसी कितनी ही स्मृतियां निकल आती हैं। 

सब नॉस्टैल्जिया है। अब जीवन की आपाधापी में यही स्मृतियां हैं, जो विस्मृत कर देती हैं। किसी बच्चे की निश्छल मुस्कान जैसी।